Friday, 30 September 2016

मैं एक नारी हूँ written by Prachi Satav

मैं थी और मैं हूँ

गंगा हूँ मैंयमुना हूँ मैंऔर सरस्वती भी मैं,
गायत्री मैंदुर्गा हूँ मैंऔर गृहलक्ष्मी भी मैं.
सुकुमारी सकुचाती सी, उज्जवल ज्योति थी मैं,
उद्विग्न भयंकर दावानल  प्रज्वल अग्नि हूँ मैं.
घर की बगिया को सींचती एक जलधारा थी मैं,
खंड खंड करती पाषाणों को, बनी प्रचंड लहर हूँ मैं

माँ पिता के प्रेम से  सिंचित, कोमल लतिका थी मैं

अब हूँ अभिघाती को चुभती बबूल की डाली मैं 
अब मुझमे प्रेम  ढूंढना जग की अपरिपक्वता है,
क्योंकि जग के अवचार से ही आयी मुझमे रागहीनता है.
मंद कुंद समझ देते निमित्त मुझे सुकुमारी कलिका का,
सावधानहरी प्रिया नहीं अब रूप हूँ मैं कालिका का.